Sri Rupa Manjari Pada Sei Mora Sampada

Song Name: Sri Rupa Manjari Pada Sei Mora Sampada
Official Name: Lalasa Song 1
Author: Narottama Dasa Thakura
Book Name: Prarthana
Language: Bengali

śrī-rūpa-mañjarī-pada, sei mora sampada,
sei mora bhajana-pūjana
sei mora prāṇa-dhana, sei mora ābharaṇa,
sei mor jīvanera jīvana (1)

sei mora rasa-nidhi, sei mora vāñchā-siddhi,
sei mora vedera-dharama
sei vrata, sei tapa, sei mora mantra-japa,
sei mora dharama-karama (2)

anukūla habe vidhi, se-pade haibe siddhi,
nirakhiba e dui nayane
se rūpa-mādhurī-rāśī, prāṇa-kuvalaya-śaśī,
praphullita habe niśi-dine (3)

tuyā-adarśana-ahi, garale jārala dehī,
cira-dina tāpita jīvana
hā hā prabhu kara dayā, deha more pada-chāyā,
narottama laila śaraṇa (4)

The lotus feet of Sri Rupa Mañjarī are my real wealth. They are the object of my bhajana and pūjā, the treasure of my heart, and they are my ornaments and the very life of my life.

They are the reservoirs of all rasa for me and the fulfillment of all my desires. They are the conclusion of the religion of the Vedas for me and are the goal of all my vows, austerities, and the chanting of my mantra. They are the purpose of all my religious activities.

By the power of those feet my activities will become favourable to devotion, spiritual perfection will be achieved, and with these two eyes I will be able to actually see. The exquisite beauty of Śrī Rūpa Mañjarī’s divine feet will shine like the brilliant moon upon the lotus of my heart both day and night, thus giving relief to my afflicted soul.

The serpent in the form of separation from You has poisoned my whole body, and my life is permanently miserable. O my Lord, please bestow Your mercy upon me. Give me the shade of Your lotus feet. Narottama dasa takes shelter of You.

শ্রী-রূপ-মঞ্জরী-পদ, সেই মোর সম্পদ,
সেই মোর ভজন-পূজন
সেই মোর প্রাণ-ধন, সেই মোর আভরণ,
সেই মোর জীবনের জীবন (১)

সেই মোর রস-নিধি, সেই মোর বাঞ্ছা-সিদ্ধি,
সেই মোর বেদের ধরম
সেই ব্রত, সেই তপ, সেই মোর মন্ত্র-জপ,
সেই মোর ধরম-করম (২)

অনুকূল হবে বিধি, সে-পদে হৈবে সিদ্ধি,
নিরখিব এ দুই নয়নে
সে রূপ-মাধুরী-রাশি, প্রাণ-কুবলয়-শশি,
প্রফুল্লিত হবে নিশি-দিনে (৩)

তুয়া অদর্শন-অহি, গরলে জারল দেহী,
চির-দিন তাপিত জীবন
হা হা রূপ কর দয়া, দেহো মোরে পদ-ছায়া,
নরোত্তম লৈল শরণ (৪)

श्रीरूपमञ्जरी-पद, सेइ मोर सम्पद,
सेइ मोर भजन-पूजन ।
सेइ मोर प्राण-धन, सेइ मोर आभरण,
सेइ मोर जीवनेर जीवन ॥१॥

सेइ मोर रसनिधि, सेइ मोर वांछासिद्धि,
सेइ मोर वेदेर-धरम |
सेइ व्रत, सेइ तप, सेइ मोर मन्त्र जप,
सेइ मोर धरम-करम ॥२॥

अनुकूल ह ‘बे विधि, से पदे हइबे सिद्धि,
निरखिब ए दुइ नयने।
से रूपमाधुरी राशी, प्राण- कुवलय-शशी,
प्रफुल्लित ह ‘बे निशि दिने ॥३॥

तुया-अदर्शन-अहि, गरले जारल देहि,
चिर-दिन तापित जीवन।
हा हा प्रभु! कर दया, देह मोरे पदछाया,
नरोत्तम लइल शरण ॥४॥

श्रीरूपमञ्जरीके चरणकमल ही मेरी वास्तविक संपदा हैं। उनकी सेवा ही मेरा भजन-पूजन है। वे ही मेरे प्राणधन, मेरे आभूषण, एवं वे ही मेरे जीवन के भी जीवनस्वरूप हैं।

वे ही मेरे रसनिधि हैं, तथा मेरी इच्छाओं की सिद्धि हैं। वे ही मेरे लिए वेदों के धर्मस्वरूप हैं। उनकी सेवा ही मेरे लिए व्रत, मंत्र-जप, तथा धर्म-कर्म है।

मेरा सौभाग्य उदित होने पर उनके चरणकमलों में मेरी सिद्धि होगी तथा मैं अपने दोनों नेत्रों से उनका दर्शन करूँगा। उनकी रूपमाधुरी का दर्शन कर जिस प्रकार चन्द्रमा के उदित होते ही नीलकमल प्रफुल्लित हो जाता है, उसी प्रकार भी दिन-रात प्रफुल्लित अर्थात् आनन्दित होता रहूँगा।

श्रीरूपमञ्जरी-पद, सेइ मोर सम्पद,
सेइ मोर भजन-पूजन ।
सेइ मोर प्राण-धन, सेइ मोर आभरण,
सेइ मोर जीवनेर जीवन ॥१॥

सेइ मोर रसनिधि, सेइ मोर वांछासिद्धि,
सेइ मोर वेदेर-धरम |
सेइ व्रत, सेइ तप, से मोर मन्त्र जप,
सेइ मोर धरम-करम ॥२॥

अनुकूल ह ‘बे विधि, सेइ पदे हइबे सिद्धि,
निरखिब ए दुइ नयने।
से रूपमाधुरी राशी, प्राण- कुवलय-शशी,
प्रफुल्लित ह ‘बे निशि दिने ॥३॥

तुया-अदर्शन-अहि, गरले जारल देहि,
चिर-दिन तापित जीवन।
हा हा प्रभु! कर दया, देह मोरे पदछाया,
नरोत्तम लइल शरण ॥४॥

१. श्री रूप मञ्जरींचे चरणकमळच माझी सर्व संपदा (संपत्ती) आहे. त्यांची सेवा हेच माझे भजन-पूजन आहे. तेच माझे प्राणधनस्वरूप, आभुषणस्वरूप तसेच माझ्या जीवनाचे जीवनस्वरूप आहेत.

२. तेच माझे रसनिधी आहेत, त्यांची सेवाच मला वाञ्छित आहे, तसेच तेच माझ्यासाठी वेदांचे धर्मस्वरूप आहेत. त्यांची सेवा हे माझे व्रत, तप, जप तसेच सर्व प्रकारचे धर्म-कर्म स्वरूप आहे.

३. भाग्य जेव्हा माझ्यासाठी अनुकूल असेल तेव्हा (अर्थात, सौभाग्य उदित झाल्यावर) त्यांच्या चरणकमलांमध्ये माझी सिद्धी असेल आणि माझ्या दोन्ही नेत्रांनी मी त्यांचे दर्शन करीन. त्यांच्या रूपमाधुरीच्या दर्शनाने, ज्याप्रकारे चंद्रोदय झाल्याने नीलकमल प्रफुल्लित होते, त्याप्रमाणे मी देखील निशिदिनी प्रफुल्लित, आनंदित राहीन.

४. श्रीनरोत्तमदास ठाकूर म्हणतात, हे श्रीरूप गोस्वामी! आपल्या अदर्शन (विरह) रूपी सर्पाच्या विषाने माझे शरीर जर्जरीत होत आहे, त्यामुळे माझे प्राण चिरकाल व्याकूळ राहिले आहेत. आपणच कृपावश आपल्या चरणकमलांची छाया प्रदान करा; अर्थात, आपल्या चरणकमलांमध्ये स्थान प्रदान करा, मी तुम्हाला शरण आलो आहे.

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